जब_विश्व_विजेता_हार_गया
भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारी हमेशा ही लड़खड़ाते हुए वापस दौड़े, एक दुःसाहस भारत पर आक्रमण करने का सिकंदर ने भी कर दिया, उसने भारत की सीमाओं के साथ छेड़खानी की, और जीवन का कटुतम स्वाद चखा, और दुर्गति होने के कारण वो अपने प्राण ही गंवा बैठा।
किन्तु दुर्भाग्य देखिये, भारत की अजेय संतान पोरस पर उसकी विजय का वर्णन करते हुए वामपंथी थकते नही। घोर असत्य का वर्णन भारतीय इतिहास में इसलिए पैठ गया है, क्यों कि जितने भी महान संघर्ष के इतिहास लिखे, यूनानियों ने ही लिखे और यह तो सर्वज्ञात है कि घोर पराजयों से अपना मुँह काला करने वाले भी अपने पराभवों के विजय के आवरण में छद्म रूप से प्रस्तुत करते हैं।
यही बात सिकन्दर के भारत के वीर हिन्दू पुरुषों से भिड़ंत में हुई है।
सिकंदर महान ….. जैसा की पुकारा जाता है, ईसा पूर्व 356 में जन्मा था। वह मेसेडोनिया के राजा फिलिप द्वितीय ओर एपिरोड की शाहजादी ओलिम्पियस का पुत्र था। अपनी राजनीतिक बुद्धिमता के लिए फिलिप तो प्रख्यात था, किन्तु सिकन्दर की माता असंस्कृत, अशिक्षित, अशोभन, एक व्यभिचारिणी स्त्री थी। सिकन्दर जब 15 वर्ष का हो गया, तो उसकी शिक्षा दीक्षा के लिए प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तु को नियुक्त किया गया। सिकंदर का अदम्य साहस और निरंकुश व्यवहार अरस्तू के दर्शन से वश में नही आया सिकन्दर को लोगों को पीड़ा पहुंचाकर आनन्द आता था। एक बार जब उसका पिता राज्य की राजधानी में अनुपस्थित था, तो उसने सैनिक टुकड़ियां लेकर पहाड़ी क्षेत्रों के विद्रोह को दबाने के लिए उन पर चढ़ाई कर दी।
लगभग इसी समय उनके परिवार में पारिवारिक कलह चल रहा था, उन लोगों ने पृथक हो जाने का निर्णय किया। रानी ओलम्पियस राजमहल छोड़ के चली गयी, अपने उद्दंड स्वभाव के कारण सिकन्दर अपनी माँ के साथ ही गया। कुछ समय पश्चात फिलिप की हत्या कर दी गयी। इसमें सिकन्दर का हाथ था, इस बात से इनकार नही किया जा सकता। इसके बाद इसने अपने सौतेले भाई की भी हत्या करवा दी, और खुद राजा बन बैठा। साहसी तो यह था ही, धीरे धीरे इसने अपने राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ किया। ईरान तक यह जीतते जीतते आ पहुंचा, जहां तहां इसने विजय प्राप्त की उस क्षेत्र में इसने आग लगवा दी, तहस – नहस कर दिया। ईरान आते ही इसे नौसेना भी मिल गयी। अब यह इतना शक्तिशाली हो गया, कि खुद को ही सर्वशक्तिमान समझ बैठा, यहां तक कि खुद को ईश्वर का देवदूत समझ बैठा।
ईरान में नौसेना मिली, इसके बाद इसने सीरिया को घेरा वहां विजय प्राप्त की। बाद में गाजा पर अधिकार कर यह मिस्र में जा घुसा, इधर ईरान ने खुद को दुबारा स्वतंत्र घोसित कर दिया। ज्यों ही इसने मेसोपोटामिया पर आक्रमण किया, ईरान की सेना इसके सामने आकर खड़ी हो गयी। भयंकर नरसंहार हुआ, ईरान की सेना दुबारा भाग खड़ी हुई। इसके बाद पहाड़ी क्षेत्रों को रौंदता हुआ सिकन्दर अफगानिस्तान आ पहुंचा। अब उसे अपनी जीतों पर घमंड होने लगा था। वह स्वयं अर्धेस्वर समझने लगा था, और अपने को पूजन का अधिकारी समझ बिना ना नुकुर किये ही अप्रतिरोधिक समर्पण चाहता था।
सिकंदर बसंत ऋतु के आसपास हिंदुकुश के पार पहुंचा। और सम्पूर्ण बैक्ट्रिया अपने अधीन कर लिया। किन्तु ज्यों ही उसकी सेना सिंधु नदी के पार पहुंची, भारत के पठानों (जो कि उस समय हिन्दू थे) ने उनका जबरदस्त सामना किया। यह पठान उस समय भारत की बाह्य सीमा की रक्षा करते थे। लेकिन सिकंदर का यह पूर्ण सामना नहीं कर सके, और यह सिंधु नदी पार कर ही गया। इसमें इसकी सहायता भारत के प्रथम देशद्रोही कुमार आंभी ने की। आंभी की राजधानी तक्षशिला हुआ करती थी। चेमार से लगते हुए पोरस का शाशन था, जो कश्मीर तक आकर खत्म होता था। राजा आंभी का पोरस से पुराना बैर था, अतः उसने सिकंदर को मदद कर पोरस से बदला लेने की पूरी पूरी चेष्टा की। इसने सिकंदर को सहायता का पूरा आश्वाशन दिया। पोरस अब अकेला पड़ गया था, जिसको सिकन्दर का सामना करना था। राजा आम्भी ने हर तरह से सिकन्दर की सहायता भी की। पारस्परिक वर्णनों में कोई तिथियां उपलब्ध नही है, किन्तु सिंधु नदी के ऊपर एक स्थायी पुल बना दिया गया, और सिकंदर की सेना भारत में प्रवेश कर गयी। आक्रमक सेना ने अटक के उत्तर में 16 मील पर पड़ाव डाला। सिकंदर के पास 20,000 पैदल और 25000 अश्व सेना थी जो कि पोरस की सेना से कहीं अधिक थी। सिकन्दर की सहायता आम्भी और ईरान के सैनिकों ने भी की ।
महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष के सप्तम भाग के पृष्ठ 539 पर लिखा है कि सिकंदर और पोरस की सेनाओं के मध्य परस्पर संघर्ष चेनाब नदी के तट पर हुआ था। किन्तु क्रटिक्स लिखता है कि सिकन्दर झेलम नदी के दूसरी ओर पड़ाव डाले पड़ा था। पोरस के सैनिक उस द्वीप में तैरकर पहुंचे। उन लोगो ने उस पार यूनानी सैनिकों पर घेरा डाल लिया, और अग्रिम दल पर हमला बोल दिया। उन्होंने अनेक यूनानी सैनिकों को मार डाला। मृत्यु से बचने के लिए अनेक यूनानी सैनिक नदी में कूद पड़े, और वहीं डूब कर मर गए।
ऐसा कहा जाता है कि सिकंदर ने झेलम नदी को एक घनी अंधेरी रात में नावों द्वारा हरनपुर से ऊपर 60 मील की दूरी पर तेज कटाव के पास पार किया। पोरस के अग्रिम दल का नेतृत्व उसका पुत्र कर रहा था और भयंकर मुठभेड़ में वह मारा गया।
कहा जाता है कि इन दिनों भयंकर वर्षा हो रही थी, और उसके हाथी दलदल में फंस गए। किन्तु यूनानी लेखकों द्वारा लिखे गए इतिहास को सूक्ष्म दृष्टि से पढ़ा जाए, तो ज्ञात होता है पोरस की गजसेना ने भयंकर तबाही फैला दी थी और सिकन्दर की शक्तिशाली फ़ौज को तहस नहस कर डाला था।
एरियान लिखता है कि भारतीय युवराज ने सिकन्दर को घायल कर दिया था, और उसके घोड़े बुसे फेल्स को मार डाला।
लेकिन जस्टिन नाम का एक इतिहासकार लिखता है कि जैसे ही युद्ध प्रारम्भ हुआ, पोरस ने भयंकर महाविनाश का आदेश दे दिया। फिर अनावश्यक रक्तपात को रोकने के लिए पोरस ने उदारतावश केवल सिकंदर से अकेले ही निपट लेने का प्रस्ताव रखा। सिकंदर ने उस वीर प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। आगे जो हुआ, वह उसके मरने तक के आघात के नीचे ढेर हो गया।
“धड़ाम ” से युद्ध भूमि में नीचे गिर जाने से उसे शत्रुओं से घिर जाने का भय उतपन्न हुआ, किन्तु उसके अंगरक्षक किसी तरह उसे बचाकर ले गए। पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उतपन्न आतंक का वर्णन करते कर्टिनेर लिखता है:
“इन पशुओं ने भयंकर आतंक उतपन्न कर दिया था, उनकी प्रतिध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे बिगड़कर वे भाग खड़े होते थे, बल्कि घुड़सवारों के ह्रदय को भी दहला देती थी। इसने इनके वर्गों में ऐसी भगदड़ मचाई की विजयों के यह शिरोमणि अब ऐसे स्थान की खोज में लग गए, जहां उन्हें शरण मिल सके।”
अब चिड़चिड़े होकर सिकन्दर ने अपने सैनिकों को यह आज्ञा दी कि जैसे भी इन हाथियों पर प्रहार करें और इसका परिणाम यह हुआ कि वे दुबारा पैरो तले रौंदे गए। सर्वादिक ह्रदय विदारक दृश्य तो वह था जब वह स्थूल चरम पर अपनी सूंड पर यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था और अपने ऊपर वायुमंडल में अधर में हिलाता था और उसको अपने आरोही योद्धा के पास पहुंचा देता था, जहां वह इसका सिर धड़ से अलग कर देता था। इस प्रकार ही सारा दिन व्यतीत होता रहता, चलता रहता।
इस बात का डियोडोरिस भी सत्यापन करता है “विशालकाय हाथियों में अपार बल था। वे अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुए, उन्होंने पैरों तले अनेक यूनानी सैनिकों की हड्डी पसलियों का कचूमर बना दिया था। हाथी इन सैनिकों को सूंड से पकड़ लेते, और जोर से भूमि पर पटक मारते, वे अपने विकराल गजदन्तो से यूनानी सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे। झेलम के नजदीक सिकंदर की अधिकांश यूनानी सेना मारी गयी। सिकंदर ने अनुभव कर लिया, यदि मैं और लड़ाई जारी रखूगा तो अपना सम्पूर्ण नाश करवा बैठूंगा। अतः उसने युद्ध बन्द कर देने के लिए पोरस से प्रार्थना की। लेकिन पोरस ने सिकंदर को बंदी बनाकर कारगार में डाल दिया।”
कहा जाता है की सिकंदर की पत्नी ने पोरस को पत्र लिखा कि पोरस उसे बहन समझ उसके सुहाग की रक्षा करे और सिकंदर का वध ना करे। एक हिन्दू अब कैसे उसका वध करता, यही हिन्दू की महानता होती है।
सिकंदर ने युद्ध बन्द करने के लिए पोरस को कहा था कि
“श्रीमान पोरस! मुझे क्षमा कर दीजिए, मैंने आपकी शूरता और सामर्थ्य शिरोधार्य कर ली है। अब इन कष्ट को मैं और अधिक नही सह पाऊंगा। दुःखी ह्रदय हो अब मैं अपना जीवन समाप्त करने का इरादा कर चुका हूं| मैं नही चाहता कि मेरे सैनिक मेरे ही समान विनष्ट हो। मैं वह अपराधी हूँ, जिसने अपने ही सैनिकों को काल के मुँह में धकेल दिया है। किसी राजा को यह शोभा नही देता की वह अपने सैनिकों को इस प्रकार मृत्यु के मुख में धकेल दे।”
सिकंदर ने अपने कुछ राज्य भी पोरस को दे दिए। सिकंदर का सामर्थ्य प्राचीन भारत के हिन्दू वीरों के लोहे जैसे जिगर के आगे टकरा के चूर-चूर हो चुका था। उसकी सेना ने आगे युद्ध करने से बिल्कुल इंकार कर दिया था। उसकी पत्नी के निवेदन के कारण पोरस ने सिकंदर को रिहा कर दिया। किन्तु वापस लौटते समय स्थानीय लोगों को पोरस समझा नही सका। नागरिकों ने लौटते हुए सिकन्दर की सेना पर आक्रमण कर दिया और सरपर भयंकर वार कर के सिकन्दर को भारत की भूमि में ही मार डाला। जब सिकंदर की सेना वापस लौटी तो सिकंदर का शव लेकर ही लौटी।
आप पोरस के काल का सिक्का देख रहे है, जिसमे गजराज पोरस ने अश्वसवार सिकंदर को बांध रखा है।
साभार: देविका मिश्रा जी